Wednesday, 26 December 2018

दिसंबर में तुम्हारी याद लाज़िमी है! ©

दिसंबर में तुम्हारी याद लाज़िमी है
तुम मेरी तन्हाई के इकलौते वारिस हो जिसे हम अब ये देना चाहेंगे ।
तब जबकि दिसंबर सर्द होकर भी मुझे महसूस नहीं होने दे रही अपनी उपस्थिति क्यूंकि मैंने ख्यालों का एक मौसम रचा है जहां तुम मेरी जान, मेरे साथ रहते हो !
जब भी ठंडी हवा दूर से मेरे पास आती है तुम्हारी नज़र जो कि मेरे बालो पर है वो उस ठंडी हवा को मुझे छूते देख लेती है ।
तुम मुझपर अपना एकाधिकार समझते हो तो उस हवा से जब मेरी लटे उड़ती है तुम मुझे अपने और करीब ले आते हो
तुम मेरी उंगलियों को अपनी उंगलियों से बांध लेते हो वहीं सात जन्म वाले फेरों की गांठ के जैसे और अपने सीने से लगा लेते हो ।
हम हैरान से होकर तुम्हारी पेशानी का सबब पूछते है
तुम उदास हो कर कहते हो कितने दुश्मन है जालिम हम दोनों के दरमियान
जो अक्सर मुझे तुमसे छीनने में लगे है .
तुम सारे खिड़की दरवाजे बंद कर देते हो पर्दा लगा देते हो और रौशनी का कतरा जो ये महसूस कराता है कि अभी भी दिन है उसकी ओर इशारा करके कहते हो 'हमें बस इतनी जरूरत इस जहान की ना कम ना ज्यादा',
की मुझे तुम्हारा चेहरा बस साफ़ नज़र आए मुस्कुराते हुए ।
तुम्हारे गुलाबी होठ दिखते रहे ।
मुझे तुम्हारी सांसो की आवाज़ सुनाई दे और
ये गर्म सांसें यही जो मेरे गालों से टकराती है, जो तुम्हारे भीतर से छन के आती है यहीं हवा चाहिए।
हां तो अब ये दिसम्बर मुझे उसी ख़्वाब गाह तक सीमित रखती है
जहां एक मेरी ख़ुद की दुनियां है तुम्हारे साथ की जिसमें तुम्हारी बातें और मेरी तन्हाई है।


©प्रज्ञा ठाकुर

तुझे ज़िंदा देखना था ! ©

वो इस बात पे हैरान है की मैं खुश क्यों  हूँ?
मैं तो खुश हूँ की उसे, हैरान देखना था
उसने जिस तरह से छोड़ा मुझे बीच राह में,
मुझे घर लौट कर, उसको परेशां देखना था
उसने मेरा दिल जलाया की उसे फर्क न पड़ा
मुझे ये आग बुझा कर, उसे हवा देखना था
मेरी ख़ुशी माना की रुख से विदा हो गयी लेकिन,
मुस्कुराने का हुनर बचा था उसे जो परेशां देखना था
क्या सोचता है मेरे यार जुलाहे की मैं मुर्दा हूँ?
सच कहूं तो हूँ क्यूंकि तुझे ज़िंदा देखना था

©प्रज्ञा ठाकुर

Thursday, 20 December 2018

मेरे शहर अज़ीज़ ! ©


अरे मेरे खुशनुमा शहर
मेरी दिलरुबा वादियां
मेरे महबूब हवाएं
तुम उदास हो, की हम है
कोई कुछ तो बतलाये
यादें तमाम छोड़ गए थे
तुम्हें तन्हा कहां छोड़ा ?
हम जो नहीं थे शहर में
तो भी रिश्ता कहाँ तोड़ा?
कहों ख़फा हो क्या ?
या किसी और से दिल लगा लिए
हम यहाँ के पहले से है
तुम 'उसे' तो नहीं अपना लिए
की अबकी जो हवाएं चल रही
जाने कुछ उदास सी है
अपना शहर है की नहीं ?
कुछ अनकही प्यास सी है
देखो अगर तुमने उसको अपना मान लिया
तो कहते है बगावत होगी
गर जो मुझे भूल कर उसके रंग में हो
तो खुदा कसम क़यामत होगी
वो पास है तेरे ए मेरे शहरे अज़ीज़
मगर तू तो मेरा है दिल ए रक़ीब
उसके रंग में बहना मत वो बेवफा है
तुम बस मेरे हो उससे मुझे शिकवा-गिला है
मैं आयी हूँ तो मुझसे ज़िंदगी ले लो
उसका क्या है वो तो जिद्दी सिरफिरा है
मैं तुमसे दूर होकर भी तुम्हें भूलती नहीं हूँ
वो तो दिलफ़रेब कल मेरा था आज तेरा है!

©प्रज्ञा ठाकुर

Tuesday, 18 December 2018

आज कि नारी का योग्य स्वरूप ।©

मैं सती हूं पर असीम ऊर्जा का स्रोत नहीं,
मैं पराजित हूं जो पति के सम्मान के लिए अपनी क्रोध को नियंत्रित ना कर पाने पर आत्मदाह कर लेती है
और सीता हूं घूम-घूम कर अपने हर बात की सफाई देती है लोगों को की इसका ये अर्थ है आपने गलत समझा माने अग्नि परीक्षा तो मेरा दूसरा रोज़गार है 
मैं राधा हूं जिसे रुक्मणि बनने की ख्वाहिश थी पर भगवान बना दिया गया
और गंगा हां , गंगा का अपना कोई अस्तित्व नहीं वो तो पावन हीं है ताकि लोगों के कचरे और पाप धोएं
तो मुझे ना अब इन सब से अलग मेरा अस्तित्व और मेरी खुशी नज़र आती है
जहां मैं सूर्पनखा हूं मेरा भाई सदैव मेरे लिए तत्पर है
मैं पूतना हूं जो मासूम से बाबन देख पिघल गई लेकिन जब उसे मालूम पड़ा कि जिसे वो पुत्र बना कर दूध पिलाना चाहती थी वो विश के लायक है तो उसे दूध में जहर घोल पिला दिया
और मैं सुभद्रा हूं जो अर्जुन को लेकर भाग गई
द्रौपदी नहीं जो लोक लाज के आगे शहीद हो गई इतना अपमान सहा ।
मैं कलयुग में हूं और यहां के उसूल मैंने खुद बनाए है
हां मैं रुक्मणि और सत्यभामा हूं।
राधा , मीरा , सीता ये सब मेरे भीतर है पर बाहर इनकी कोई आवश्यकता नहीं
बाहर तो मैं सिर्फ काली हूं और मेरा सम्पूर्ण जीवन हीं काली की भांति क्रूर है जहां शिव को स्वामी नहीं पुत्र बन कर आना पड़ता है मुझे शांत करने ।
अर्थात प्रेम के लिए में सदैव प्रेम हूं और शासन , क्रूरता और तानाशाही के लिए सदैव मैं विकराल हूं ।
उम्मीद है मेरे जीवन में राम, कृष्ण नहीं शिव आए ।
नहीं तो जालंधर भी ठीक है ।
©प्रज्ञा ठाकुर

Wednesday, 12 December 2018

तुम्हारी वेदना


सोचो ना कितना प्यार है मुझमें
जहां भी तुम्हारा जिक्र होता है
मैं खामोशी से सुनती हूं
और कोई शिकायत भी नहीं करती
जानती हूं कि वो मेरा दिल दुखाते है
तुम्हारी बातें कर के
लेकिन मुझे तुम्हारे नाम में
खो जाने की आदत है
मैं उनकी बातें नहीं सुनती
बस तुम्हारा जिक्र सुनकर खो जाती हूं
उन्हीं लम्हों में जब तुम कुछ कहते थे
मैं कुछ कहती थी
कोई किरदार बुनती थी मैं
तुम किस्से गढ़ते थे
पागल हो तुम, तुमने कभी
जुबान से आंखें बयान हीं नहीं की
मैं बुझती गई तुम्हारी वेदना
और सीलती गई ख़ुद के ज़ख्म
तुम खुश तो हो ना?
तुम्हारा जिक्र यूं बेवजह नहीं होता.©

प्रज्ञा ठाकुर

Tuesday, 11 December 2018

पहली कमाई - बुद्धि ! ©


बात उन् दिनों की है जब मेरी उम्र गिनती और पहाड़े सिखने की थी और पहाड़ा किसी पहाड़ की चढ़ाई के जैसे हीं  नामुमकिन सा लग रहा था, ऐसा लग रहा था की सारी उम्र निकल जाएगी पर मुझे याद नहीं होगा 5  के बाद . देश १९९३ की बम ब्लास्ट से जूझ रहा था और कहीं दूर गांव में एक नन्ही बच्ची 7 बजे की पढ़ाई से ख़ौफ खा रही थी, 7  बजते हीं डिबिया की रौशनी में पढ़ाई चालू हो जाती हर रोज़ डिबिया क्यूंकि लालटेन था घर में लेकिन बत्ती बढ़ा के उसे काली कर दी जाती थी और उसमे कागज के टुकड़े दाल दिए जाते थे पढ़ाई से बचने के लिए, तो लालटेन मुझसे दूर टांगा जाता था.
कोने में थोड़ी दूर एक लकड़ी की कुर्सी पे दादी बैठती थी छौंकी (पतली लकड़ी ) ले कर,मारती नहीं थी कभी पर ख़ौफ बना रहता था की मार सकती है !
डिबियाँ की रौशनी में हमारी किताबें साफ़ दिखती थी पर आस-पास धुंधला पन था और दादी तक पहुंचते- पहुंचते नज़रों के आगे अँधेरा  छा जाता था
वहां एक बात समझ आयी की अगर खुद की आंखे बंद कर लो तो दुनिया में अँधेरा हो जाता है अर्थात दादी अगर हमको साफ़ नहीं दिख रही तो हम भी उसको साफ़ नहीं दिख रहे होंगे !
हम ये भूल जाते थे की हम डिबिया यानि रौशनी के करीब है और उजाले में, तो हम अपनी मासूम समझ का फायदा उठा के किताब में मुँह धंसा के झपकी ले लेते, कभी-कभी दादी भी दादा के याद में खो जाती या कंठी माला जाप में तो मेरी झपकी पूरी आधे घंटे की नींद बन जाती
और कभी-कभी तो आंख लगते हीं छौंकी ज़मीन पे दे मारती और उसकी फट की आवाज़ से मैं उठ जाती ! 7-9 तक यही सिलसिला चलता रोज़-रोज़ और मुझे बोलते रहने के लिए कहां  जाता ताकि उन्हें लगे की मैं पढ़ रही, मैं भी २ का टेबल हीं बोलती जाती लगातार घंटो और झपकी ले लेती,यहां-वहां टहल आती, पानी पी आती और वो दो घंटे भी किसी साल जितने बड़े होते जाते कई बार जब पापा भी दादी के साथ बैठ जाते !
अजीब बचपना था पर बहुत कम नसीब था, आज समझ आता है उन् झपकियों में जितना सुकून था ना,
दिन-रात की नींद नहीं दे पायी, वो 9 बजे खाना मिलना वैसी भूख कभी नहीं लगती इतनी सिद्दत से पढ़ाई से बचने के लिए खाने का इंतज़ार, और दादी के डर से जो पढ़ाई शुरू की वो पहली कमाई ज्ञान, दोबारा कभी ज़िंदगी ने उतना अच्छा नहीं सिखाया वो मासूमियत और चालाकी दोनों सिख गए.
बस उसी वजह से ज़मीन से ऐसा जुड़ाव हुआ की आसमान में कितनी ऊँची उड़ान  क्यों ना हो खजूर पर कभी नहीं लटकेंगे  !

©प्रज्ञा ठाकुर

Friday, 26 October 2018

अबला कह कर गाली ना दो !©

सही कहा मैं हीं ज़हर हूँ
घोल-घोल कर सबको पिलाते हो, मुझीं को
सही कहा मैं हीं ज़हर हूँ
और बोलो ज़हर होने की क्या कोई सज़ा है ?
सजाये मौत तो अक्सर कातिल को मिला है
और वो हो तुम जो है विष घोलता
तो कैसे मिलेगी मुझको ज़हर होने की सज़ा?
अक्सर कहते हो मैं नागिन हूँ
सही कहा मैं हीं नागिन हूँ
पर यूँ हीं किसी को डसने को,
मैं नहीं हूँ बैठी
तुम हीं तो मुझकों, सदैव उकसाते हो
लठ मारते, बेवजह आग लगाते हो
तो भला बताओ सज़ा मेरी अब होगी क्या ?
तुमको हीं वक़्त पर देंगे सही सज़ा
मैं डायन हूँ सही कहा
कई सालों से तुमने ये जो नाम दिया
मेरे घर को उजाड़, बेवजह मुझे वीरान किया
और खो गयी जो मेरी सारी संवेदना
तो ये कहो की क्या सज़ा होगी मुझे?
देखना इसकी भी सज़ा मिलेगी एक दिन  तुमको
क्या कहा की मैं वैस्या हूँ ?
तुमने बिलकुल ठीक कहा मैं हीं हूँ
मैं हीं जिसको छुआ तुमने और गन्दी हो गयी
मेरे छूने से तुम अब तक पाक रहे
तो कहो कौन इस सज़ा का अब हक़दार हुआ
नाचती हूँ रोज़-रोज़ जिस आँगन में,
उस मिट्टी से बनती दुर्गा की प्रतिमा
अब ये कहो की कौन नर्क का द्वार हुआ
कहो किसे दे सज़ा, हमें तो सब स्वीकार हुआ
क्या ? क्या कहा की मैं अबला हूँ ?
बस, बस बहुत कहा अब बस भी करो
इतना जो कहा सब ठीक हीं था
अब अबला कह कर गाली ना दो
अब अबला कह कर गाली ना दो!

©प्रज्ञा ठाकुर 

Friday, 21 September 2018

दर्द क्या है ?©

किसी  ने यूँ हीं अचानक एक सवाल पूछ लिया और तबसे खुद को जवाब दिए जा रही - वो सवाल कुछ यूँ था की तुम्हें देख कर लगता है तुमने अभी दुनिया नहीं देखि और दर्द से दूर-दूर तक तुम्हारा कोई ताल्लुक नहीं, महलों की रानी सी नाजुक कोमल हाथ तुम्हारे कभी कोई काम नहीं किये होंगे और कोई भी सख्श कभी तुम्हारा दिल नहीं दुखाता होगा!

उनके ये शब्द सराहनीये थे किसी फेरी टेल जैसी फीलिंग आयी पर मैंने भी पूछ लिया ? और आप तो दर्द के साथ ही साँस लेते है तो जरा हमे भी बताईये कितना दर्द है? कैसा होता है दर्द ? 
२-३ प्रेमिकाओं का साथ छूट जाना , माँ का बीमार होना , घर की जिम्मेदारी , किसी से एकतरफा प्यार की मार फिर से झेलना, हाँ उसको रात-दिन निहारना सोशल साइट्स पे जा के और शराब, सुट्टे में डूबे रहना खुद की ज़िंदगी को अधूरा महसूस करते हुए ! किसी पुरानी प्रेमिका के लिए गाली तो किसी के लिए शायरी और दर्द की इतनी इम्तिहान. उफ़ इस शहर में ऐसे दर्द से हर दूसरा सख्श गुजर रहा, लेकिन उस दर्द से निकलना नहीं है किसी को हाँ एक और नयी प्रेमिका की एंट्री की तलाश है , सुट्टा और दारू छोड़ नहीं सकते आदतों में सुमार है और अब इस चक्कर में आने वाली प्रेमिका भी छोड़ी जाएगी और फाइनल  वाली तो मम्मी ही लाएगी !
वाकई इस दर्द से घृणा सी हो गयी है . ये सब कायर है मेरी नज़रों में इन् जैसे लोगों ने अपनी नहीं ना जाने कितनों की ज़िंदगी ख़राब की है बस अपने दर्द को न्याय दिलाने की कोशिश में .

हाँ मैं मुस्कुराती सी, कोमल सी लड़की हूँ जिसे तुम जैसे किसी दर्द झेलते इंसान का शिकार होना नहीं पसंद , जो अकेला हो, जिसे बारम्बार प्यार हो जाता हो पर साथ निभाने में बुजदिली हो, जो कमजोर खोखला हो लेकिन उन्हें किसी मिस परफेक्ट की तलाश होती है. और सुनो तुम्हें ये दर्द मुबारक हो तुम इसी दर्द के लायक हो! सच कहें तुम्हारें मनोदशा से हमें इससे भी खतरनाक जजमेंट की उम्मीद थी तुमने बचा लिया. दर्द जो बता सको, जो दिखा सको वो अगर दर्द होता तो क्या बात थी. दर्द की तो जब अभिव्यक्ति होती है तो इंसान का शरीर सुन्न पड़ जाता है. आत्मा नीरस लगती है, किसी शराब से जाती नहीं और उसे नींद कभी आती नहीं. दर्द में लफ्ज़ निकलते हीं कहाँ है ? आंखे पथराई सी होती है .
दर्द बहुत मुश्किल है बता पाना! दर्द में गुस्सा तो होते है पर किससे और क्यों मालूम नहीं , खुदा के पास से गुजर जाना उसे नजरअंदाज करते और फिर सिद्दत से पूजना, दर्द तोड़ता है, तुम्हारे स्वाभिमान के टुकड़े-टुकड़े करता है दर्द, दर्द अय्यियाश नहीं है, दर्द बार-बार मौका नहीं देता, दर्द शांत और वीरान है, दर्द कुछ पल के लिए आस्थगित नहीं होता, वो बेचैनी बन के आँखों में नाचता है, दर्द पागल है कब, कैसे, कहाँ दिख जाये समझ नहीं आता. दर्द को दलाली नहीं आती .
दर्द बदलता नहीं. दर्द सुधरता नहीं. दर्द जिद्दी और ढीठ नहीं है, बहुत सरल है, दुनियादारी के बहाओ में बस मुड़ता और टूटता जाता है , पानी की तरह घुलता-मिलता और बस शांत बहता जाता है. दर्द ईमानदार है ,गंभीर है, दर्द तो आलोचना नहीं करता. उसे सब स्वीकार है. दर्द ज्ञान है-जो किसी किताब में नहीं मिलती और दर्द ऐसे संतोष है जो मिल जाये तो इंसान सत्य हो जाये और अमर हो जाये .
''जिन जिन पावा मैं लगी ,करया ना कोई भेद
पायदान थी वाही रही , साधु लगया या चोर '


©प्रज्ञा ठाकुर

Friday, 20 July 2018

बनारसी पान की मिठास सी ©

तु और मैं दोनों बनारस के होते
गंगा घाट पर सुबह ५ बजे मिलते
मैं किसी पुजारी की बेटी होती
तु किसी पान के दुकान का
रेगुलर ग्राहक !
बनारसी पान की मिठास सी
हम दोनो के जज़्बात होते
हाँ तेरी आवारा आदते मुझे सुहाती नहीं
पर तु होता नहीं वैसा जैसा दिखता
कहते है इश्क का अंदाज हीं
जुदा होता है अक्सर !
बस गंगा की अनंत, अविरल सी धारा में,
बहती हमारी गाथा !! 


©प्रज्ञा ठाकुर

Saturday, 9 June 2018

मुक़्क़मल इश्क़ !©

चलो एक पूरी सी कहानी कहानी लिखते है दो अधूरे किरदार मिल कर !
तुम्हें बस आना है मेरी ज़िंदगी में बस एक गुलाब लेकर और ज़माने से छुपते-छुपाते ,किसी किताब में रखकर एक अधूरी चिठ्ठी के साथ जिस पर ,कुछ बेमतलब की शायरी लिखीं हो जिसका मेरे वज़ूद से कोई लेना देना ना हो ,लेकिन फिर भी मैं पढ़ कर मुस्कुरा दूँ और शरमा कर सोचूँ की तुमने मेरे लिए हीं
 लिखीं है ! हाँ वो और बात है की मुझे पता होगा की तुम शायरी नहीं लिखते.
फिर उस गुलाब को चुम कर मैं अपनी किसी ख़ास डायरी में छुपा लुंगी जहाँ घर वालों की सालो-साल नज़र ना पड़े .
फिर मन ही मन मैं तुम्हें बहुत चाहने लगु और दीवानगी का आलम इस कदर हो की हर मंगल वार मंदिर जाऊ और बाल- ब्रह्मचारि हनुमान जी से तुम्हें मांगू उन्हें बूंदी के लडडू चढ़ा कर ,और सारे सोमवारी करुँ की तुम ही मेरे जीवन साथी बनो पर तुमसे कुछ ना बोलूं.
तुम रोज़-रोज़ यूँ हीं मेरी गली के चक्कर लगाना और कभी-कभी चोरी से मुझे खिड़की से झांकते पकड़ लेना .ऐसे ही मुझे मेरी दुआं कबूल सी लगने लगे और तुम्हें भी तुम्हारे बिना पूछें हुए सवाल  का जवाब हाँ में मिल जाये !
बस रूहानी इश्क़ हो ,दोनों में हो गज़ब का ,इशारों के रिश्ते हों , मुस्कुराहटों से ज़ाहिर हों .
ऐसा अधूरा सा प्रेम हों की एक दिन हम किसी अजनबी शहर चले जाये और तुम भी गली के चक्कर लगा कर थक जाओ तो कोई पड़ोस वाली नफीसा तुम्हें कह दें की वो मकान खाली कर के शहर छोड़ कर चली गयी उसे तुम्हारे दीवानेपन पे तरस आ जाये .बहुत होगा तो तुम उसे कह देना की मैं लौटूं तो तुम्हें बता दें और अपना नंबर छोड़ आना उसके पास कभी ना आने वाले कॉल के लिए और कहीं खो  जाना दुनिया की भीड़ में ,और बेगाने शहर में हम भी कुछ दिन तुम्हारी याद में तड़पे और फिर नयी दुनियाँ बना लें अपनी .
इश्क़ भी मुकम्मल होगा , हाँ किरदार अधूरे होंगे पर कहानी पूरी होगी !

©प्रज्ञा ठाकुर

Tuesday, 29 May 2018

ए ज़िंदगी तेरा शुक्रिया !©

ज़िंदगी बिखर  गयी थी
लेकिन सांस बाकि थी
जो गया ले गया सब कुछ
फिर भी आस बाकि थी
अकेली एक कमरे में
बंद करके सारे दरवाजे
सोने की कोशिश बहुत की थी
लेकिन नींद नहीं थे आँखों में
कुछ सवालात बाकि थी
शायद किसी ने मुझको
व्यहवारिक बना दिया
बहुत जो भावुक थी
उसने जीना सीखा दिया
इतना टूटी की टूटने का शोर ना हुआ
रात आयी थी ऐसे की फिर भोर ना हुआ
ए ज़िंदगी तेरा शुक्रिया तूने क्या- क्या दिखा दिया
क्या मजा था केवल ख़ुशी में , तूने हर रंग जिला दिया !


©प्रज्ञा

Monday, 21 May 2018

एक बेचैन नींद !©

एक बेचैन नींद
सुकून तलाशती अर्धरात्रि को ,
फिर थक कर पलकों में छुप जाती
और फिर आंखे खुल जाती वो जग जाती
एक बेचैन नींद
किसी का होकर भी ना होना
किसी को खोकर भी ना खोना
जाने देना उसे फिर ,
उसकी यादों से गुफ्तगू करना
रात-रात जागना और उसे
अपने सिरहाने पास कहीं महसूस करना
अजीब दुविधा सी होना
जैसे दरिया के बीचों बीच फॅसे हो
एक चट्टान के टुकड़े के सहारे लटके हो
जानते हो उभर नहीं सकते
लेकिन डूब ना सकना
अजीब कश्मकश होना
हालातें बेबस होती है
नींद सुकून तलाशती है
ऐसा कई बार होता है
ऐसा हर बार होता है
रात बीत जाती है
नींद बेचैन रहती है !


©प्रज्ञा ठाकुर

Saturday, 12 May 2018

एक मात्र ध्यय जीवन का ©

जो है साथ उसे कसकर रखों जब तक हल्की आँच बाकी हो , और रिश्ते में गरमाहट हो ,
लेकिन तुम्हें कमजोऱ करने वाले रिश्तों कि बलि दे दो
और वापस उस एहसास के लिए कोई जगह ना रखना ,
ना कोई शख्स़ और ना कोई वहम लौटने पाए ।
उतनी दूर जाने दो जहां से , लौटने के रास्ते ख़त्म हों जाए , ठीक वैसे ही जैसे कॉच का टूट कर कभी ना जुड़ना!
मैनें अक्सर खूबसूरत मौसमों को यूँ ही पतझर बनते देखा है।
और पंछीओ को इसकी आदत सी है ,उनकी आजा़दी पर इसका कोई असर नहीं पड़ता।
और आजा़द रहना ही तो एक मात्र ध्यय है जीवन का !

 ©प्रज्ञा ठाकुर

हालात- ए - इश्क़ !©

हालात- ए - इश्क़ -
एक कसक है जो ठंडी नहीं  होती
कुछ उमस है जो भीनी- भीनी  सुलगती
बज़्म में लोग भी शामिल है ऐसे ,
किनारे मिलते नहीं नदी के , जिन्हें आदत है कहने की ,
झोंका है हवा का वक़्त- ए -काफ़िर
दगाबाज़ दरियाँ जो डूबकर उभरने नहीं देती
अमावस जैसी रात बीच -बीच में ,
हर पहर आती है
इश्क़ उस बेवा से हालात है जो
ख़ुद मर कर भी सवरने नहीं देती
शायरी कविता गीत ग़ज़ल ,
सब मेरे किस्से ही तो हैं
लोगों से दाद जो मिलती है मुझे ,
मेरी आह उसे मुझ तक पहुँचने नहीं देती!!
©प्रज्ञा ठाकुर

Ek lamhaa !©

Ek lmha hi to hoon

Gujar jaunga
Tu yaad nhi karti
Main kidhar aaunga...
Lautunga kin galiyon me
Jab koi pehchanega nhi
Waqt gujrega jaise
Main bhi gujrta jaunga
Ek lamha hi to hun
Phir kahan aaunga
Kabhi socha h kya tune
Ki gujri hue jawani
Jaise laut nahi pati
Gujra hua koi shaksh bhi nahi
Bachpan bhi kaha aati hai
Main bhi bund bund sa ,
Samay ki dhara me bikhar jaunga
Ek lamha hi to hua
Phir kahan aaunga
Pragyathakur

©pragya thakur

अधूरी -अधूरी सी !©

अधूरे हम अधूरे तुम
अधूरी सी है अपनी बातें 
अधूरे पन के किस्सों में ,
अधूरी सी अपनी मुलाकातें
अधूरा आसमां लगता
अधूरी सी जमीं लगती
अधूरा सा जहाँ लगता
कहीं तेरी कमी लगती
इन्ही अधूरे पन को जीती जा रही कबसे
अधूरे तुम नहीं ,अधूरी मैं नहीं
अधूरा कोई भी नहीं
अधूरे से इन् हालातों में ,
ज़रा सा ध्यान से सोचूँ
अधूरी -अधूरी सी ही मिल कर के
ये ' पूरी'  ज़िंदगी लगती !!!


©प्रज्ञा ठाकुर

निल-गगन के चाँद मेरे !©

अनगिनत बार यूँ ही लौटी
ख़ाली हाथ देख बस गगन की ओर ,
तुम बहुत दूर थे
और चमक रहे थे ,
मैं अमावस की रात
तुमको ग्रहण से दूर रखके
लौट आयी इस कदर
वापस उस जगह से ,
जहाँ बस ख़ाब में जाती हूँ,
मिलने तुमसे अक्सर !
ज़िंदगी है यूँ तो मेरी स्याह रातें
और तुम हो ,निल-गगन के चाँद मेरे
कई बार कोशिश भी की
तुम तक पहुंच पाने की
पर मेरी किस्मत में,
तुम शामिल नहीं हो
हार जाती हूँ मैं अक्सर
सोचकर ये ,दूर हो तुम दूर !
बहुत ही दूर हमसे ,
और ये दुरी धरा से ,
गगन तलक की ही नहीं ,
ये दुरी है इस दिल से ,
उस दिल के दरमियाँ भी ,
ज़िंदगी है यूँ तो मेरी ,स्याह रातें
और तुम हो ,निल -गगन के चाँद मेरे !

©प्रज्ञा ठाकुर
   

वो दिन बचपन के,©

वो दिन बचपन के,
किलकारी भरी- आँगन की यादें समेटे
वो दिन भर पंछी की तरह चहचहाना
खेलना,कूदना, मिट्टी में कपड़े भिगाना
थक-कर कहीं भी सो जाना
बंद हो जाती जब अपनी चहचहाहट
माँ का ह्रदय लगता जोड़ो से धड़कनें
घर के हर कोने में हमें ढूंढती वो
जो मिलते नहीं तो लगती सिसकने
ढूंढकर देखती, मिट्टी में कपड़े भिगाकर
खोये हैं कहीं किसी सपने में जाकर
प्यार से ले गोद में हमें चूमती
मानो हीरा मिला हो ऐसे झूमती
हमे लिटाकर खुद भी सो जाती वो
हमारे हीं सपनों में खो जाती वो!

©प्रज्ञा ठाकुर

Monday, 23 April 2018

लाल और नीली नदी©

लब- लब -लब, लत -पत ,झर- झर
बहती है नदी
'नीली' सी नदी
है 'लाल' नदी,
दोनों ही नदी समेटी,
वो बाली वो विधवा
वो बूढ़ी वो बच्ची
वो युवती एक दुल्हन भी !
लाल नदी रोती है
सब रोते है
हाय हाय करते है
भला क्यों रोते है?
कुछ कहती है दोनों नदी
इंगित करती है
तेरा नाश मनुज
कायर तेरी बिपत्ति
वो नीली नदी
बचपन से बहती है
बुढ़ापे तक बहती है
सदियों से बहती रहती है
है साफ़ नदी
ऊपर की नदी
कुछ पाक नदी
हर ज़ख्म बयां करती है -
 जो है लाल नदी
भीतर की नदी
जिसका बहना दुर्भाग्य को दर्शाता
सब सहती है
लत -पत, लत- पत
ख़ून से लतपत,
चुप रहती है
फिर एक गहरा सन्नाटा -
सब सो जाते है
वो भी सो जाती है !

©प्रज्ञा ठाकुर

Saturday, 7 April 2018

आग और पानी ©

दो आत्माये मिलती है
एक दहकती आग सी
एक पानी सा
दोनों जलते बुझते से
कभी आग बुझती सी
कभी पानी जलता
जरा सी हवा आती दोनों के दरमियाँ
दोनों घुलते मिलते से,
अलग अलग से लेकिन
एक दूजे के प्रेम में,
बस इतनी सी कहानी
अधूरी सी  हीं सही
कभी आग पानी मिले है भला ?
पर  प्यार  तो  हुआ  !


©प्रज्ञा  ठाकुर

Love between fire & water ©

©
Two souls meet,
One’s like a burning flame,
One’s like Water,
Both burn and extinguish
Sometimes fire extinguishes
Sometimes water burns
A small gush of air flows between both,
Both mingle,
But are different 
And still in love,
Just a small love story, 
Incomplete though it is!
Can Fire and Water ever be one?
But still LOVE can happen in such a way.©


@pragyathakur

Wednesday, 4 April 2018

इश्क़ हुआ है !©

इश्क़ क्या है ? ये यहाँ किसी को नहीं मालूम
फिर भी अक्सर लोग कहतें इश्क़ हुआ है !
जब जिस्म ख़त्म हो,और रूहें  निकल कर 
आज़ाद हो कर सोच की गन्दी गुफा से ,
निकल जाती हो बहुत दूर-तलक
जब अँधेरे में भी 'रौशन' सी लगती हो ,
परदों की नहीं पड़ती हो , जब इसको  जरुरत !
चीथड़ों में नहीं होती हो लिपटी साख़ इसकी
और बेअसर होती हो हर लालच ही इसपर !
जब कभी समझ आने लगे की मैं ही तुम हो,
या की ये समझ आना की शायद तुम ही मैं हूँ !
जब लगे की आसमां छत हीं हो जैसे ,
या लगे की धरती भी घर हीं हो जैसे
जब समझ जाने लगो तुम उसको वैसे
स्वयं के बारे में तुम समझे हो जैसे
जब वो ना मिले तो भी उसी से प्यार हो
या फिर मिल के भी मिलना नहीं स्वीकार हो
जब कुछ अधूरापन भी ,सुकून देता हो तुमको
या की आंशु भी बहते हो, कुछ हसीं समेटे !
जब औरत केवल जिस्म या यौवन नहीं हो
या पुरुष बस बल या की साहस नहीं हो
जब रोती हुई कोई स्त्री करुणा से पुकारे
जब कोई बच्चा कौतूहल से इस दुनिया को निहारें 
जब कोई पुरुष तुम्हारे चोट पर आंशु बहा दें
या की कोई नारी आके बस ढांढस बंधा दें
कोई कोयल बाग़ में गाती हो तब-तब
देखती हो नाचते दो रूहों को जब- जब
जब स्त्रियों के ही गहने लज़्ज़ा नहीं हो
पुरुषों की भी आँखों में थोड़ी हया बचीं हों
जब बाली उम्र का पहला प्यार जब पास आये
रौनके गलियों की, चेहरें अजनबियों के भी खिल से जाये
जब हर कोई महसूस कर ले तुम्हारी वेदना
या की छोड़ दे तुमको मौन करते साधना
जब हांसिल करना ही तेरा मकसद नहीं हो
या पूजना रब बना भी न्याय संगत नहीं हो
जब तुम्हारे प्यार की सीमा नहीं हों
जिस्मों से आज़ाद रूहें उड़ रहीं हों
जब श्रृंगार में , या "चीर- बिन' केवल
सुन्दर ना हों कोई ...
जब भेद बस जिस्मों से होते ना हों कोई
जब उसका रोना तुम्हें भी, मायूस करदे
और उसकी हसीं हों तुमको गुदगुदाती
जब रब को रब, मंदिर को बस मंदिर ना कहतें
जब उसकी हर एक चीज़ को भी मान देते
जब दर्द केवल दर्द हीं,समझ आता नहीं हों
या ख़ुशी केवल ख़ुशी सी ही ना हों लगती!
जब उसको खोने का डर और पाने की वेदना
एक सी हीं हो गयी हो हर एक साधना !
जब जन्म और मृत्यु दोनों ही त्यौहार हो
और मिलना या बिछड़ जाना दोनों स्वीकार हो
कोई समझे तो ये इश्क़ भला पहेली है क्या ?
कभी हुआ नहीं, फिर भी है कहतें इश्क़ हुआ !

©प्रज्ञा ठाकुर

I do understand!!

I look at him in pain, And lightly smile again. He might think I jest, His sorrows, wounds, unrest. I've fought battles on my own, Survi...