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Showing posts from May 6, 2018

एक मात्र ध्यय जीवन का ©

जो है साथ उसे कसकर रखों जब तक हल्की आँच बाकी हो , और रिश्ते में गरमाहट हो , लेकिन तुम्हें कमजोऱ करने वाले रिश्तों कि बलि दे दो और वापस उस एहसास के लिए कोई जगह ना रखना , ना कोई शख्स़ और ना कोई वहम लौटने पाए । उतनी दूर जाने दो जहां से , लौटने के रास्ते ख़त्म हों जाए , ठीक वैसे ही जैसे कॉच का टूट कर कभी ना जुड़ना! मैनें अक्सर खूबसूरत मौसमों को यूँ ही पतझर बनते देखा है। और पंछीओ को इसकी आदत सी है ,उनकी आजा़दी पर इसका कोई असर नहीं पड़ता। और आजा़द रहना ही तो एक मात्र ध्यय है जीवन का !  ©प्रज्ञा ठाकुर

हालात- ए - इश्क़ !©

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हालात- ए - इश्क़ - एक कसक है जो ठंडी नहीं  होती कुछ उमस है जो भीनी- भीनी  सुलगती बज़्म में लोग भी शामिल है ऐसे , किनारे मिलते नहीं नदी के , जिन्हें आदत है कहने की , झोंका है हवा का वक़्त- ए -काफ़िर दगाबाज़ दरियाँ जो डूबकर उभरने नहीं देती अमावस जैसी रात बीच -बीच में , हर पहर आती है इश्क़ उस बेवा से हालात है जो ख़ुद मर कर भी सवरने नहीं देती शायरी कविता गीत ग़ज़ल , सब मेरे किस्से ही तो हैं लोगों से दाद जो मिलती है मुझे , मेरी आह उसे मुझ तक पहुँचने नहीं देती!! ©प्रज्ञा ठाकुर

Ek lamhaa !©

Ek lmha hi to hoon Gujar jaunga Tu yaad nhi karti Main kidhar aaunga... Lautunga kin galiyon me Jab koi pehchanega nhi Waqt gujrega jaise Main bhi gujrta jaunga Ek lamha hi to hun Phir kahan aaunga Kabhi socha h kya tune Ki gujri hue jawani Jaise laut nahi pati Gujra hua koi shaksh bhi nahi Bachpan bhi kaha aati hai Main bhi bund bund sa , Samay ki dhara me bikhar jaunga Ek lamha hi to hua Phir kahan aaunga Pragyathakur ©pragya thakur

अधूरी -अधूरी सी !©

अधूरे हम अधूरे तुम अधूरी सी है अपनी बातें  अधूरे पन के किस्सों में , अधूरी सी अपनी मुलाकातें अधूरा आसमां लगता अधूरी सी जमीं लगती अधूरा सा जहाँ लगता कहीं तेरी कमी लगती इन्ही अधूरे पन को जीती जा रही कबसे अधूरे तुम नहीं ,अधूरी मैं नहीं अधूरा कोई भी नहीं अधूरे से इन् हालातों में , ज़रा सा ध्यान से सोचूँ अधूरी -अधूरी सी ही मिल कर के ये ' पूरी'  ज़िंदगी लगती !!! ©प्रज्ञा ठाकुर

निल-गगन के चाँद मेरे !©

अनगिनत बार यूँ ही लौटी ख़ाली हाथ देख बस गगन की ओर , तुम बहुत दूर थे और चमक रहे थे , मैं अमावस की रात तुमको ग्रहण से दूर रखके लौट आयी इस कदर वापस उस जगह से , जहाँ बस ख़ाब में जाती हूँ, मिलने तुमसे अक्सर ! ज़िंदगी है यूँ तो मेरी स्याह रातें और तुम हो , निल -गगन के चाँद मेरे कई बार कोशिश भी की तुम तक पहुंच पाने की पर मेरी किस्मत में, तुम शामिल नहीं हो हार जाती हूँ मैं अक्सर सोचकर ये ,दूर हो तुम दूर ! बहुत ही दूर हमसे , और ये दुरी धरा से , गगन तलक की ही नहीं , ये दुरी है इस दिल से , उस दिल के दरमियाँ भी , ज़िंदगी है यूँ तो मेरी ,स्याह रातें और तुम हो ,निल -गगन के चाँद मेरे ! ©प्रज्ञा ठाकुर    

वो दिन बचपन के,©

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वो दिन बचपन के, किलकारी भरी- आँगन की यादें समेटे वो दिन भर पंछी की तरह चहचहाना खेलना,कूदना, मिट्टी में कपड़े भिगाना थक-कर कहीं भी सो जाना बंद हो जाती जब अपनी चहचहाहट माँ का ह्रदय लगता जोड़ो से धड़कनें घर के हर कोने में हमें ढूंढती वो जो मिलते नहीं तो लगती सिसकने ढूंढकर देखती, मिट्टी में कपड़े भिगाकर खोये हैं कहीं किसी सपने में जाकर प्यार से ले गोद में हमें चूमती मानो हीरा मिला हो ऐसे झूमती हमे लिटाकर खुद भी सो जाती वो हमारे हीं सपनों में खो जाती वो! ©प्रज्ञा ठाकुर