पतझड़ पतझड़ - डाली डाली , दुःख से तड़पे वन का माली , कब से तिनके भीगा रहा , सुखी उपवन सुखी डाली , अब का सावन ऐसा आया , ना धुप ही थी , ना थी कोई छाया , घूम - घूम कर देख रहा था , गीली उपवन , सुखी काया , मन भी ऐसा ही दर्पण है , बाहर से सुंदर , भीतर से , बड़ा ही निर्मम है ...... कोमल कोमल सुंदर सुंदर मन का एक एक अंतर - अंतर , दुर्बल मन को करने वाला , है यही कोई भीतर - भीतर , क्या सावन क्या बसंत मन भावन क्या बदरा क्या सूखा ... जब मन हो व्याकुल , कोई नहीं दे पाए माली को संतुष्टि , छपण भोग भले ही दे दो रह जाये मन सुखा , माली भूखा ! @ प्रज्ञा ठाकुर