Posts

Showing posts from December 9, 2018

तुम्हारी वेदना

Image
सोचो ना कितना प्यार है मुझमें जहां भी तुम्हारा जिक्र होता है मैं खामोशी से सुनती हूं और कोई शिकायत भी नहीं करती जानती हूं कि वो मेरा दिल दुखाते है तुम्हारी बातें कर के लेकिन मुझे तुम्हारे नाम में खो जाने की आदत है मैं उनकी बातें नहीं सुनती बस तुम्हारा जिक्र सुनकर खो जाती हूं उन्हीं लम्हों में जब तुम कुछ कहते थे मैं कुछ कहती थी कोई किरदार बुनती थी मैं तुम किस्से गढ़ते थे पागल हो तुम, तुमने कभी जुबान से आंखें बयान हीं नहीं की मैं बुझती गई तुम्हारी वेदना और सीलती गई ख़ुद के ज़ख्म तुम खुश तो हो ना? तुम्हारा जिक्र यूं बेवजह नहीं होता.© प्रज्ञा ठाकुर

पहली कमाई - बुद्धि ! ©

Image
बात उन् दिनों की है जब मेरी उम्र गिनती और पहाड़े सिखने की थी और पहाड़ा किसी पहाड़ की चढ़ाई के जैसे हीं  नामुमकिन सा लग रहा था, ऐसा लग रहा था की सारी उम्र निकल जाएगी पर मुझे याद नहीं होगा 5  के बाद . देश १९९३ की बम ब्लास्ट से जूझ रहा था और कहीं दूर गांव में एक नन्ही बच्ची 7 बजे की पढ़ाई से ख़ौफ खा रही थी, 7  बजते हीं डिबिया की रौशनी में पढ़ाई चालू हो जाती हर रोज़ डिबिया क्यूंकि लालटेन था घर में लेकिन बत्ती बढ़ा के उसे काली कर दी जाती थी और उसमे कागज के टुकड़े दाल दिए जाते थे पढ़ाई से बचने के लिए, तो लालटेन मुझसे दूर टांगा जाता था. कोने में थोड़ी दूर एक लकड़ी की कुर्सी पे दादी बैठती थी छौंकी (पतली लकड़ी ) ले कर,मारती नहीं थी कभी पर ख़ौफ बना रहता था की मार सकती है ! डिबियाँ की रौशनी में हमारी किताबें साफ़ दिखती थी पर आस-पास धुंधला पन था और दादी तक पहुंचते- पहुंचते नज़रों के आगे अँधेरा  छा जाता था वहां एक बात समझ आयी की अगर खुद की आंखे बंद कर लो तो दुनिया में अँधेरा हो जाता है अर्थात दादी अगर हमको साफ़ नहीं दिख रही तो हम भी उसको साफ़ नहीं दिख रहे होंगे ! हम ये भूल जाते थे की हम डिबिया यानि रौशनी के क