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Showing posts from August 13, 2017

ख़ामोशी

  दरकती   हुई सांसे   ख़ामोशी   से   कह   रही- वो   एक   उम्र   भी   कम   था   तेरी   साथ   को   , औ आज   जब   हम   मौन   में   , तुझे   कह   भी   नहीं   पा रहे की   एक और   उम्र   जीने   की   ख्वाहिश   है   तेरे   संग . तो तू पास में ही हाथ को थामे , सिसकिया ले रहा ! और कह रहा खुदा कुछ पल ," इसे और देदे ". यही   एहसास   है जो आज ना कह कर भी , बहुत कुछ कह रही !   इसी की कमी थी जो आज मैं , कुछ   कहने सुनने   के काबिल भी नहीं . प्रज्ञा ठाकुर

नहीं मिली आज़ादी !

जन सत्ता की तोड़ भुजाये बहुत सुन ली कहानी अब भी आज़ादी जैसी क्या कोई चीज़ है ले आनी? नहीं जो देखी है हमने गुलामी की वो दौड़ जहाँ, गोली बंदूके बारूदें से छन्नी होते थे सीना ! पर आज जो हम है देख रहे वो भी दौड़ नहीं इंसानी ! अब अंग्रेज़ो के लिए नहीं कोई देनी क़ुरबानी पर अब तो वो मुश्किल दौड़ है जहां अपनों से ही है द्वन्द पीड़ा है बड़ी अनजानी अपने ही देश के राज़ मुकुट से जो हिल गया उस पौरुष से आज़ादी के बाद की चूक एक जिससे शहीद सैनिक अनेक और लगे हुए अब भी देने असंख्य क़ुरबानी बन देश भक्त ये जो बापू थे राष्ट्र पिता उनकी ये भूल की कीमत है जो चले गए वो छोड़ देश आज़ादी में भी  हुकूमत है

एक ख्याल

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बहुत दिनों से एक ख्याल है मन में सोचा खुद से कह दू.हाँ सही सुना अपने आप से कुछ कहना था . मैं दुसरो को सच या झूठ बड़ी या छोटी बातें आसानी से कह जाती हूँ ,बेबाक तरीके से पर खुद से कुछ बातें करने में बहुत हिम्मत जुटानी पड़ती है . खुद को कही भी गलत ठहराना हो या किसी सचाई से रूबरू जो की तकलीफ देती हो तो कैसे करवाए ,मैं अक्सर कविता कहानियों के जरिये कह बहुत कुछ देती हूँ लेकिन खुद को क्यों नहीं समझा पाती क्यूंकि शायद उसी मुकाम पर मेरा एक लेखिका होने का दायरा छोटा होता है और इंसान होने के दायरे में सिमट जाता है और फिर वो इंसान सोचता है ,की बातों से कुछ नहीं होता या फिर ऐसा तो सबके साथ होता है ना ,आज का यह पोस्ट सबके साथ होने वाली मानसिकता पर है . मैं नहीं मानती की सबके साथ एक ही चीज़े एक ही बाते होती है . मुझे मालूम है की कुदरत भी सबके साथ अलग अलग ही बर्ताव करती है अगर लोग कुदरत को अलग अलग तरीको से चुनौती देते है.जैसे मैं दिखती हूँ वैसे आप नहीं दिखते,जैसा मैं सोचती हूँ आपकी सोच भी उससे अलग हो सकती है अगर आप दुसरो की सोच फॉलो ना करे तो ,और ऐसा ही अलग अलग हम सबके जीवन का लक्ष्ये है

वो एक नज़र तेरा !

वैसे तो पिछले कई दिनों से मैंने तुम्हे नोटिस किया था ,की तुम छुप छुप कर देखते हो ,पर रंगे हाथो पकड़ने की ख्वाहिश दिल में थी ,फिर क्या था एक बगल में मेरे ही बेंच पर बैठी क्लासमेट ने कहा की वो तुझे देख रहा है ,देख-देख ,और मैं मुस्कुरा कर मुँह फेर कर बैठ गयी , अरे बस कुछ पल के लिए ही मुँह फेरा , कहा मन लग रहा था उस सब्जेक्ट को पढ़ने में बार बार कोई इनर वॉइस कह रहा था देखने दे क्या हो गया ! बस मैं पलट गयी ,और तुम पकडे गए ,तुम मुझे ही देख रहे थे , तु म्हारी नजरें नीची हो गयी और मेरे हाथो की पेंसिल गिर गयी जमीन पर , मैं झुकी पेंसिल उठाने और फिर से तुमने देखा ! मुझे कैसे पता? अरे क्यूंकि मैंने भी तो देखा की क्या तुम देख रहे हो . 'यूँ ही चलते आँखों के सिलसिले , ना जाने कब दिल तक उतर गए ख्वाब ही होगा जागती आँखों का , हकीकत में तो हम-तुम कितने बदल गए " प्रज्ञा ठाकुर # दिल से

सुरक्षा और सम्मान

बारिश बहुत तेज़ हो रही थी , ना तुम छाता लाये न मैं ,अचानक आयी बारिश , बिन बुलाये मेहमान की तरह ही तो होती है तैयारी का मौका ही नहीं देती , खुद को बचाने की ! आज कॉलेज में फंक्शन था सो साड़ी पहनी sciffon की ,पर क्या पता था सुबह से लोग तारीफ कर रहे थे अचानक मुझे खुद के इस फैसले पर दुःख होगा , काश जीन्स ही पहन लेती , या छाता ले आती अब , घर कैसे जाउंगी ? ये सब मैंने मन में सोचा बहुत irritate थी पर बोली नहीं , अचानक तुमने अपनी ब्लू bleasre दे दी और कहा चलो मैं त ुम्हे घर छोड़ देता हूँ . तुम.. इतनी दूर मुझे ड्राप करोगे लेट होगा तुम्हे , मैंने यूँ ही बोला , मुझे पता था तुम्हारा मुझे ड्राप करना ही ठीक रहेगा मैं बहुत uncomfortable हूँ , तुम शायद मन ही पढ़ रहे थे , मैंने कहा ना मैं तुम्हे घर ड्राप कर दूंगा , और तुम चल पड़े , बहुत ही खूबसूरत एहसास था सुरक्षित महसूस हुआ , भीड़ में बस में चढ़ी तो तुमने अपने हाथ से बढ़ती हुई भीड़ को रोक लिया ,इतनी भीड़ में भी एहसास नहीं हुआ किसी ने मुझे धक्का नहीं मारा , किसी ने घुरा भी नहीं ,तुम पहले घूर देते थे , जो भी मुझे देखता तुम बस उन्हें देखते मुस्

मेरा स्वाभिमान अभी जिन्दा है !!!

                                  मेरा स्वाभिमान अभी जिन्दा है सुन कबसे बोल रहा हूँ , मुँह क्यों सुजा रखा है ,जवाब क्यों नहीं दे रही ? नहीं बात करनी बोल दे . ठीक है मैं जा रहा हूँ भाड़ में जा तू मत सुन मुझे क्या ? अच्छा चल बता अब हुआ क्या ? कुछ तो बता , मैंने कुछ गलत कह दिया ? कोई मेरी बात बुरी लगी तुझे ?  नहीं कुछ नहीं तुम जाओ . बस इतना ही बोल पायी मैं, कहने को तो शब्दों और शिकायतों का भंडार था , पर फायदा नहीं दिखा कुछ भी कहने सुनने का , तुम्हे समझ आती तो तुम ऐसा करते ही क्यों , फालतू में बहस बढ़ेगी तर्क वितर्क होगा न तुम मानोगे अपनी गलती और ना मैं खुद को सुकून दिला पाऊँगी , जाने दो पर ऐसा कब तक चलेगा ? रोज़ाना की तरह ही लोकल में जा रहे थे और मैं हस रही थी मैंने तुमसे एकदम खुश हो के पूछा था अरे कल संडे है कही चलते है सबलोग , और तुमने मेरी बात को अनसुना करके मुझे बोला धीरे बोल धीरे सब सुन रहे ,कितना तेज़ बोलती है . बस एक गहरा सन्नाटा मेरे भीतर तक रक्त चाप की तरह बह गया ,खामोश तो ऐसे हुई की अब अगला शब्द ही न निकले जुबान से , और तभी मेरे गालों पे जो ख़ुशी की लालिमा थी क्रोध के लाल बादल में ब