जन सत्ता की तोड़
भुजाये 
बहुत सुन ली
कहानी 
अब भी आज़ादी जैसी
क्या 
कोई चीज़ है ले
आनी?
नहीं जो देखी है
हमने 
गुलामी की वो दौड़
जहाँ,
गोली बंदूके
बारूदें
से छन्नी होते थे
सीना !
पर आज जो हम है
देख रहे 
वो भी दौड़ नहीं
इंसानी !
अब अंग्रेज़ो के
लिए नहीं 
कोई देनी क़ुरबानी
पर अब तो वो
मुश्किल दौड़ है 
जहां अपनों से ही
है द्वन्द 
पीड़ा है बड़ी
अनजानी
अपने ही देश के
राज़ मुकुट से 
जो हिल गया उस
पौरुष से 
आज़ादी के बाद की
चूक एक 
जिससे शहीद सैनिक
अनेक 
और लगे हुए अब भी
देने 
असंख्य क़ुरबानी
बन देश भक्त 
ये जो बापू थे
राष्ट्र पिता 
उनकी ये भूल की
कीमत है 
जो चले गए वो छोड़
देश 
आज़ादी में भी  हुकूमत है
 
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