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Showing posts from October 15, 2017

मैं स्याह रातें ,तुम गगन के चाँद मेरे ,©

अनगिनत बार यूँ ही लौटी ख़ाली हाथ देख बस गगन की ओर , तुम बहुत दूर थे और चमक रहे थे , मैं अमावस की रात तुमको ग्रहण से दूर रखके लौट आयी इस कदर वापस उस जगह से , जहाँ बस ख़ाब में जाती हूँ,  मिलने तुमसे अक्सर ! ज़िंदगी है यूँ तो मेरी स्याह रातें और तुम हो ,निल-गगन के चाँद मेरे कई बार कोशिश भी की तुम तक पहुंच पाने की पर मेरी किस्मत में,  तुम शामिल नहीं हो हार जाती हूँ मैं अक्सर सोचकर ये , दूर हो तुम दूर ! बहुत ही दूर हमसे , और ये दुरी धरा से , गगन तलक की ही नहीं , ये दुरी है इस दिल से , उस दिल के दरमियाँ भी , ज़िंदगी है यूँ तो मेरी ,स्याह रातें और तुम हो ,निल -गगन के चाँद मेरे ! ©प्रज्ञा ठाकुर