पहली कमाई - बुद्धि ! ©


बात उन् दिनों की है जब मेरी उम्र गिनती और पहाड़े सिखने की थी और पहाड़ा किसी पहाड़ की चढ़ाई के जैसे हीं  नामुमकिन सा लग रहा था, ऐसा लग रहा था की सारी उम्र निकल जाएगी पर मुझे याद नहीं होगा 5  के बाद . देश १९९३ की बम ब्लास्ट से जूझ रहा था और कहीं दूर गांव में एक नन्ही बच्ची 7 बजे की पढ़ाई से ख़ौफ खा रही थी, 7  बजते हीं डिबिया की रौशनी में पढ़ाई चालू हो जाती हर रोज़ डिबिया क्यूंकि लालटेन था घर में लेकिन बत्ती बढ़ा के उसे काली कर दी जाती थी और उसमे कागज के टुकड़े दाल दिए जाते थे पढ़ाई से बचने के लिए, तो लालटेन मुझसे दूर टांगा जाता था.
कोने में थोड़ी दूर एक लकड़ी की कुर्सी पे दादी बैठती थी छौंकी (पतली लकड़ी ) ले कर,मारती नहीं थी कभी पर ख़ौफ बना रहता था की मार सकती है !
डिबियाँ की रौशनी में हमारी किताबें साफ़ दिखती थी पर आस-पास धुंधला पन था और दादी तक पहुंचते- पहुंचते नज़रों के आगे अँधेरा  छा जाता था
वहां एक बात समझ आयी की अगर खुद की आंखे बंद कर लो तो दुनिया में अँधेरा हो जाता है अर्थात दादी अगर हमको साफ़ नहीं दिख रही तो हम भी उसको साफ़ नहीं दिख रहे होंगे !
हम ये भूल जाते थे की हम डिबिया यानि रौशनी के करीब है और उजाले में, तो हम अपनी मासूम समझ का फायदा उठा के किताब में मुँह धंसा के झपकी ले लेते, कभी-कभी दादी भी दादा के याद में खो जाती या कंठी माला जाप में तो मेरी झपकी पूरी आधे घंटे की नींद बन जाती
और कभी-कभी तो आंख लगते हीं छौंकी ज़मीन पे दे मारती और उसकी फट की आवाज़ से मैं उठ जाती ! 7-9 तक यही सिलसिला चलता रोज़-रोज़ और मुझे बोलते रहने के लिए कहां  जाता ताकि उन्हें लगे की मैं पढ़ रही, मैं भी २ का टेबल हीं बोलती जाती लगातार घंटो और झपकी ले लेती,यहां-वहां टहल आती, पानी पी आती और वो दो घंटे भी किसी साल जितने बड़े होते जाते कई बार जब पापा भी दादी के साथ बैठ जाते !
अजीब बचपना था पर बहुत कम नसीब था, आज समझ आता है उन् झपकियों में जितना सुकून था ना,
दिन-रात की नींद नहीं दे पायी, वो 9 बजे खाना मिलना वैसी भूख कभी नहीं लगती इतनी सिद्दत से पढ़ाई से बचने के लिए खाने का इंतज़ार, और दादी के डर से जो पढ़ाई शुरू की वो पहली कमाई ज्ञान, दोबारा कभी ज़िंदगी ने उतना अच्छा नहीं सिखाया वो मासूमियत और चालाकी दोनों सिख गए.
बस उसी वजह से ज़मीन से ऐसा जुड़ाव हुआ की आसमान में कितनी ऊँची उड़ान  क्यों ना हो खजूर पर कभी नहीं लटकेंगे  !

©प्रज्ञा ठाकुर

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