माली
पतझड़ पतझड़ -डाली डाली
,
दुःख से तड़पे
वन का माली
,
कब से
तिनके भीगा रहा,
सुखी उपवन सुखी
डाली ,
अब का सावन
ऐसा आया ,
ना धुप ही
थी, ना थी
कोई छाया ,
घूम- घूम कर
देख रहा था
,
गीली उपवन, सुखी काया
,
मन भी ऐसा
ही दर्पण है
,
बाहर से सुंदर,भीतर से
,
बड़ा ही निर्मम
है ......
कोमल कोमल सुंदर
सुंदर
मन का एक
एक अंतर -अंतर,
दुर्बल मन को
करने वाला,
है यही कोई
भीतर- भीतर ,
क्या सावन क्या
बसंत मन भावन
क्या बदरा क्या
सूखा...
जब मन हो
व्याकुल ,कोई नहीं
दे पाए माली
को संतुष्टि,
छपण भोग भले
ही दे दो
रह जाये मन
सुखा,माली भूखा !
@प्रज्ञा ठाकुर
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