Wednesday, 4 April 2018

इश्क़ हुआ है !©

इश्क़ क्या है ? ये यहाँ किसी को नहीं मालूम
फिर भी अक्सर लोग कहतें इश्क़ हुआ है !
जब जिस्म ख़त्म हो,और रूहें  निकल कर 
आज़ाद हो कर सोच की गन्दी गुफा से ,
निकल जाती हो बहुत दूर-तलक
जब अँधेरे में भी 'रौशन' सी लगती हो ,
परदों की नहीं पड़ती हो , जब इसको  जरुरत !
चीथड़ों में नहीं होती हो लिपटी साख़ इसकी
और बेअसर होती हो हर लालच ही इसपर !
जब कभी समझ आने लगे की मैं ही तुम हो,
या की ये समझ आना की शायद तुम ही मैं हूँ !
जब लगे की आसमां छत हीं हो जैसे ,
या लगे की धरती भी घर हीं हो जैसे
जब समझ जाने लगो तुम उसको वैसे
स्वयं के बारे में तुम समझे हो जैसे
जब वो ना मिले तो भी उसी से प्यार हो
या फिर मिल के भी मिलना नहीं स्वीकार हो
जब कुछ अधूरापन भी ,सुकून देता हो तुमको
या की आंशु भी बहते हो, कुछ हसीं समेटे !
जब औरत केवल जिस्म या यौवन नहीं हो
या पुरुष बस बल या की साहस नहीं हो
जब रोती हुई कोई स्त्री करुणा से पुकारे
जब कोई बच्चा कौतूहल से इस दुनिया को निहारें 
जब कोई पुरुष तुम्हारे चोट पर आंशु बहा दें
या की कोई नारी आके बस ढांढस बंधा दें
कोई कोयल बाग़ में गाती हो तब-तब
देखती हो नाचते दो रूहों को जब- जब
जब स्त्रियों के ही गहने लज़्ज़ा नहीं हो
पुरुषों की भी आँखों में थोड़ी हया बचीं हों
जब बाली उम्र का पहला प्यार जब पास आये
रौनके गलियों की, चेहरें अजनबियों के भी खिल से जाये
जब हर कोई महसूस कर ले तुम्हारी वेदना
या की छोड़ दे तुमको मौन करते साधना
जब हांसिल करना ही तेरा मकसद नहीं हो
या पूजना रब बना भी न्याय संगत नहीं हो
जब तुम्हारे प्यार की सीमा नहीं हों
जिस्मों से आज़ाद रूहें उड़ रहीं हों
जब श्रृंगार में , या "चीर- बिन' केवल
सुन्दर ना हों कोई ...
जब भेद बस जिस्मों से होते ना हों कोई
जब उसका रोना तुम्हें भी, मायूस करदे
और उसकी हसीं हों तुमको गुदगुदाती
जब रब को रब, मंदिर को बस मंदिर ना कहतें
जब उसकी हर एक चीज़ को भी मान देते
जब दर्द केवल दर्द हीं,समझ आता नहीं हों
या ख़ुशी केवल ख़ुशी सी ही ना हों लगती!
जब उसको खोने का डर और पाने की वेदना
एक सी हीं हो गयी हो हर एक साधना !
जब जन्म और मृत्यु दोनों ही त्यौहार हो
और मिलना या बिछड़ जाना दोनों स्वीकार हो
कोई समझे तो ये इश्क़ भला पहेली है क्या ?
कभी हुआ नहीं, फिर भी है कहतें इश्क़ हुआ !

©प्रज्ञा ठाकुर

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