कोल्हू के बैल
जो पिस्ते है सरसों,
जोते है खेत
बोझा लाद कर
आदम के वंशज का
ढोते है पीठ पर स्त्रियों के सौख
बदले में लालच
प्रेम पा लेने की
स्वीकृति पा लेने की
ईज़्ज़त पा लेने की
मगर होते है बैल
स्त्री ना चाहें तो
बैल कभी नहीं बनेगा
बाप-भाई, प्रेमी-पति
जिज्ञासू बैल आदमी
नहीं समझता जीवन राग
नहीं समझता पहेलियां
नहीं बनना चाहता भगवान
बस निभाता है तो कुछ जिम्मेदारी
बन कर रहना चाहता है ता-उम्र बैल
और उसे आदमी बनाती स्त्रियां
प्रेम से सींचती जाती.
आलिंगन देती है स्त्रियां
संवारती है उसको
और वो बना रहता है कठोर बैल
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